भारतीय संविधान की प्रस्तावना के महत्व एवं मुख्य सिद्धान्तों का वर्णन करें ।

उत्तर : – हमारे संविधान की प्रस्तावना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह स्वतंत्र भारत के लिए गाँधीजी की विचारधारा पर आधृत है । जब 1931 ई ० में राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी द्वितीय गोलमेज सम्मेलन ( Round Table Conference ) में सम्मिलित होने के लिए लंदन – यात्रा कर रहे थे , तब जहाज पर ही एक समाचारपत्र के संवाददाता के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने भारत के भावी संविधान से संबद्ध अपना विचार इन शब्दों में व्यक्त किया गया था , ” मैं एक ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करूंगा , जो भारत को सब तरह के दासत्व और आश्रय से मुक्त कर दे और यदि आवश्यकता हो , तो उसे पाप करने का भी अधिकार दे । मैं एक ऐसे भारत के लिए प्रयत्न करूंगा , जिसमें गरीब – से गरीब व्यक्ति भी महसूस करे कि यह उसका देश है , जिसके निर्माण में उसी प्रभावशाली आवाज है , जिसमें न तो उच्च वर्ग रहेगा और न निम्न वर्ग , जिसमें सब जातियाँ पूरे मेलजोल से रहेंगी । ऐसे भारत न तो छुआछूत के अभिशाप के लिए गुंजाइश हो सकती है और न नशीले द्रव्यों एवं औषधियों के लिए । महिलाओं के वे ही अधिकार होंगे , जो पुरुषों के हैं । क्योंकि , हमें संसार के शेष देशों के साथ शांतिपूर्वक रहना है – न किसी का शोषण करना है और न शोषित होना है- इसलिए , हमारी इतनी छोटी सेना होगी , जितनी की कल्पना की जा सक ती है । विदेशी हो या देशी , उस प्रत्येक व्यक्ति के हितों की रक्षा की जाएगी , जो कोटि – कोटि मूक जनता के हितों से टकराता न हो । व्यक्तिगत रूप से मैं विदेशी और देशी के बीच भेदभाव से घृणा करता हूँ । यह मैं मेरे स्वपनों का भारत । ‘ वस्तुत : हमारे संविधान की प्रस्तावना में गाँधीजी की यही विचारधारा देखने को मिलती है । एम ० वी ० पायली ने ठीक ही कहा है – ” यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सिर्फ प्रस्तावना में ही नहीं , बल्कि संपूर्ण संविधान में स्वतंत्र भारत के संबंध में गाँधीजी की विचारधारा प्रत्यक्षतः गूँजती है । ” हमारे संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है

“ हम भारत के लोग , भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न , समाजवादी , धर्मनिरपेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक न्याय , विचार , अभिव्यक्ति , विश्वास , धर्म और उपासना की स्वतंत्रता , प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करानेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनीइस संविधान सभा में आज तारीख 21 नवंबर , 1949 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत , अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं । “

भारतीय संविधान की प्रस्तावना पढ़ने से ही इसकी महत्ता स्पष्ट हो जाती है । बार्कर ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना के सांविधानिक महत्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि जब मैं उसे पढ़ता हूँ , तब मुझे यह लगता है कि उसमें इस पुस्तक का अधिकांश तर्क संक्षेप में वर्णित है , अत : उसे इसकी कुंजी माना जा सकता है । मैं उसे उद्धत करने के लिए इस कारण और लालायित हूँ , क्योंकि मुझे इस बात परगर्व है कि भारत के लोग अपने स्वतंत्र जीवन का आरंभ राजनीतिक परंपरा के उन सिद्धांतों के साथ कर रहे हैं , जिन्हें हम पश्चिम के लोग पाश्चात्य कहकर पुकारते हैं , परंतु जो अब पाश्चात्य से कहीं अधिक है । ,. प्रस्तावना में निहित मुख्य सिद्धांत ( Main Principles Embodied in the Preamble ) भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कई सिद्धान्त निहित है , जिनमें मुख्य है :-

( 1 ) जनता की संप्रभुता –

प्रस्तावना द्वारा जनता की संप्रभुता स्थापित की गई है । प्रस्तावना में स्पष्ट कहा गया है कि ” हम भारत के लोग , संविधान को अंगीकृत , अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं । ” स्पष्ट है कि संविधान का निर्माण भारत की जनता द्वारा हुआ और भारत की जनता ही भारत की समस्त राजनीतिक सत्ता का स्त्रोत है । अर्थात् , भारतीय जनता में ही वास्तविक सार्वभौमता वास करती है । आयरलैंड और संयुक्तराज्य अमेरिका में भी वहाँ के संविधानों को जनता के नाम ही अंगीकार किया गया है । अर्थात , वहाँ भी सार्वजनिक सार्वभौमता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देने के लिए जनता को ही संविधान का निर्माता माना गया है । डॉ ० अंबेदकर ने संविधान सभा में कहा था कि ” मैं कहता हूँ कि यह प्रस्तावना उसकी व्यवस्था करती है , जो इस सभा के प्रत्येक सदस्य की इच्छा है और वह यह है कि इस संविधान की जड़ , शक्ति और संप्रभुता जनता में रहनी चाहिए । ” फिर भी कुछ आलोचकों ने इस बात को गलत माना है कि भारतीय संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य जनता द्वारा निर्वाचित नहीं हुए थे , प्रत्युत प्रांतीय विधानमंडल द्वारा ही निर्वाचित हुए थे , जिनके लिए केवल 13 प्रतिशत जनता को मताधिकार प्राप्त था और उसके द्वारा निर्मित संविधान को समस्त जनता के समक्ष स्वीकारार्थ नहीं रखा गया था । संविधान के समर्थकों का कथन है कि संविधान के निर्माताओं ने जनता के प्रतिनिधि के रूप में ही संविधान का निर्माण किया और संपूर्ण राज्यशक्ति का मूल स्त्रोत भारतीय जनता को ही स्वीकार किया । इसे व्यावहारिक रूप देने के लिए उन्होंने व्यस्क मताधिकार का सिद्धांत अपनाया तथा भारतीय संसद को , जो जनता का प्रतिनिधित्व करती है , शक्तिशाली बनाया । ‘ गोपालन ★ बनाम मद्रास राज्य ‘ नामक मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी आशय का निर्माण दिया और बताया कि भारतीय जनता ने अपनी सर्वोच्च इच्छा को व्यक्त करते हुए लोकतंत्रात्मक आदर्श अपनाया है , जिसका स्पष्टीकरण प्रस्तावना करती है । दूसरी बात यह है कि संविधान के निर्माण में जिन लोगों ने भाग लिया , वे आम चुनाव में जनता द्वारा अधिकाधिक संख्या में राज्यों की विधानसभाओं और केन्द्रों की लोकसभा की सदस्यता के लिए चुने गए । इससे स्पष्ट है कि यदि विधानसभा की सदस्यता प्राप्त करने के लिए आम चुनाव होता , तो ये ही प्रतिनिधि अधिकाधिक संख्या में जनता द्वारा चुने जाते ।

( 2 ) प्रस्तावना : संविधान के आदर्शों एवं लक्ष्यों की परिचारिका –

प्रस्तावना बताती है कि संविधान का उद्देश्य न्याय , समता , स्वतंत्रता , राष्ट्र की एकता , बंधुता आदि स्थापित करना है । दूसरे शब्दों में , प्रस्तावना के पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि भारत की जनता ने एक ऐसे राज्य की स्थापना का निर्णय किया है जिसका एकमात्र उद्देश्य न्याय , स्वतंत्रता , समता और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता स्थापित करना है । प्रस्तावना में स्वतंत्रता , समता एवं बंधुत्व , जो फ्रांसीसी क्रांति के नारे थे , के साथ न्याय को सर्वप्रथम जोड़ दिया गया है , जो यह संकेत करता है कि भारत में राज्य एवं शासन – प्रबंध का उद्देश्य सामाजिक , राजनीतिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना है । यद्यपि प्रस्तावना में ‘ लोककल्याण ‘ शब्द का उल्लेख नहीं है , तथापि इसका महत्व कम नहीं होता , क्योंकि प्रस्तावना में वर्णित अन्य उद्देश्यों की पूर्ति होने से लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना स्वयं हो जाएगी ।

( 3 ) प्रस्तावना : भारतसंघ की संप्रभुता तथा उसके लोकतंत्रात्मक स्वरूप की आधारशिला –

प्रस्तावना में घोषित किया गया है कि भारत की जनता ने इस संविधान द्वारा एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य ‘ की स्थानपा की है । इन तीनों पदों का भिन्न – भिन्न , परंतु विशिष्ट महत्व है । ‘ संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न ‘ से तात्पर्य उस सर्वोच्च शक्ति से है , जो पूर्ण और अपने क्षेत्र में अनियंत्रित होती है । कूले का कहना है , ” वह राज्य संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न कहलाता है , जहाँ उसके ही क्षेत्र में सर्वोच्च और पूर्ण शक्ति का , जो अन्य किसी को अपने से बढ़कर नहीं मानती , वास होता है । ” इस प्रकार , संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न से तात्पर्य यह है कि भारत एक ऐसी राजनीतिक सत्ता है , जिसपर भारत के सीमांतर्गत कोई दूसरी सत्ता नहीं है । अर्थात , भारतसंघ एक सर्वोच्च सत्ता है और उसकी सीमा में उसकी इच्छा ही सर्वोपरि है । यह संपूर्णप्रभुत्व का आंतरिक पहलू है । इसका दूसरा पहलू यह है कि राज्य बाह्य क्षेत्रों में भी स्वतंत्र : एवं सार्वभौम है । इस प्रकार भारत केवल आंतरिक क्षेत्र में सर्वोच्च सत्ता नहीं , प्रत्युत बाह्य क्षेत्र में भी पूर्णतः स्वतंत्र एवं सार्वभौम और किसी भी अन्य देश या सत्ता के कानपूनी नियंत्रण से पूर्णत : मुक्त है । अर्थात् , भारत अपने आंतरिक प्रशासन एवं वैदेशिक नीति में किसी बाह्य सत्ता के अधीन नहीं है । दूसरे , प्रस्तावना द्वारा भारत को एक लोकतंत्रात्मक राज्य घोषित किया गया 1. ‘ लोकतंत्रात्मक ‘ शब्द का प्रयोग प्रतिनिध्यात्मक प्रजातंत्र के अर्थ में किया गया है । राजनीतिकशास्त्र के अंतर्गत प्रजातंत्र से तात्पर्य ऐसी सरकार से है , जो जनता की हो और जनता के द्वारा जनता की भलाई के लिए संचालित हो । इस प्रकार , ‘ लोकतंत्रात्मक ‘ का अर्थ यह है कि भारत के शासन प्रबंध में भारतीय जनता का हिस्सा रहेगा और उसकी इच्छा द्वारा ही सरकार का संचालन होगा । इसके लिए जन्म , धर्म , रंग , लिंग इत्यादि के भेदभाव के बिना सभी ‘ बालिग नागरिकों को प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया है । ‘ लोकतंत्रात्मक ‘ शब्द का प्रयोग केवल एक शासन पद्धति के अर्थ तक ही सीमित नहीं है , प्रत्युत यह घोषणा भी की गई है कि इस संविधान द्वारा ऐसी शासन व्यवस्था की स्थापना होगी , जिसमें सभी नागरिकों को सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय , प्रतिष्ठा एवं समान अवसर प्राप्त हो सके । इस प्रकार , ‘ लोकतंत्रात्मक ‘ शब्द के प्रयोग द्वारा प्रस्तावना सर्वांगीण रूप में एक प्रजातंत्र की स्थापना की घोषणा करती है । तीसरे , प्रस्तावना द्वारा भारत एक गणराज्य घोषित किया गया है । सामान्य अर्थ में ‘ गणराज्य ‘ शब्द राजतंत्र का विपरीतार्थक है । राजतंत्र का तात्पर्य उस शासन व्यवस्था से है जिसमें एक राजा द्वारा शासन होता है । गणराज्य से तात्पर्य उस शासन पद्धति से है , जिसमें गण द्वारा शासन होता है । इस परिभाषा के अनुसार भारत में किसी वंशक्रम के अनुसार चुने गए राजा अथवा किसी एक व्यक्ति का शासन नहीं है । लेकिन , व्यापक अर्थ में गणराज्य से तात्पर्य यह है कि राज्य सभी नागरिकों को योग्यता रहने पर सभी छोटे – बड़े पदों तक पहुँचने का अधिकार देता है । इंगलैंड में लोकतंत्र है , परंतु गणराज्य नहीं , प्रत्युत राजतंत्र है , क्योंकि वहाँ के शासन का प्रधान राजा होता है और इस पद पर उसका अधिकार वंशानुगत है । कोई दूसरा नागरिक ब्रिटिश सम्राट् का पद प्राप्त नहीं कर सकता । इसके विपरीत , भारत में राष्ट्रपति के पद के लिए सभी भारतीय नागरिक आवश्यक योग्यता रखने पर उम्मीदवार हो सकते हैं । इस प्रकार , गणराज्य से तात्पर्य है – ऊँच – नीच , अमीर – गरीब , जाति – पाँति , धर्म – वंश इत्यादि का विभेद किए बिना सभी भारतीय नागरिकों को , जिन्हें उचित योग्यता है , किसी भी राजकीय पद को प्राप्त करने का अधिकार है ।

कुछ आलोचक भारत के लिए राष्ट्रमंडल की सदस्यता को उसकी संप्रभुता एवं गणतंत्रता में बाधक मानते हैं । परंतु , यह धारणा भ्रांत है , क्योंकि इस सदस्यता के नाते भारत ब्रिटिश सम्राट् को केवल एकता का प्रतीक मानता है , उसके अधीन नहीं है और पुन : यह सदस्यता उसकी इच्छा पर निर्भर है – जब चाहे तब भारत राष्ट्रमंडल की सदस्यता छोड़ सकता है ।

( 4 ) समाजवादी राज्य भारत के संविधान की प्रस्तावना से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत एक समाजवादी राज्य है । भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब नई सरकार बनी , तब उसने देश में समाजवादी ढाँचे के समाज ( Socialistic Pattern of Society ) की स्थापना की घोषणा की । 42 वें संशोधन अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तावना में ‘ समाजवादी ‘ शब्द जोड़कर स्पष्ट कर दिया गया है कि भारत एक समाजवादी राज्य है ।

( 5 ) धर्मनिरपेक्षता की घोषणा – प्रस्तावना द्वारा भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है । यह कहा गया है कि संविधान सभी नागरिकों को विश्वास , धर्म तथा उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करता है और धार्मिक बातों में राज्य पूर्णतः तटस्थ है । 42 वें संशोधन अधिनियम में भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बताया गया है । पहली बार ‘ धर्मनिरपेक्ष ‘ शब्द का संविधान में प्रयोग किया गया है । प्रस्तावना को बहुत सीमित वैधानिक मान्यता प्राप्त है । जब किसी धारा का अर्थ स्पष्ट नहीं रहता , तब न्यायाधीश प्रस्तावना की शरण लेते हैं ।